ऋषि पंचमी 2024: 8 सितंबर को ऋषि पंचमी, जानें महत्व, पौराणिक कथाएं और मंत्र

ऋषि पंचमी व्रत कथा : हिंदू धार्मिक शास्त्रों के अनुसार भाद्रपद मास में पूजन वाली ऋषि पंचमी की तिथि कोई त्योहार नहीं है, बल्कि महिलाओं द्वारा सप्त ऋषियों के अनुसार यानि सात ऋषियों को श्रद्धांजलि देने और रजस्वला दोष से शुद्ध होने के लिए एक उपवास दिवस मनाया जाता है।
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में गणेश चतुर्थी के अगले दिन यानी पंचमी तिथि पर ऋषि पंचमी व्रत रखा जाता है। जो कि इस वर्ष 08 सितम्बर 2024, दिन रविवार को पड़ रहा है। इस दिन सप्त ऋषियों की पूजा करने का विधान है। ऋषि पंचमी के दिन कश्यप ऋषि की जयंती भी मनाई जाती है और इसी दिन से दिगंबर जैन समुदाय के 10 दिव्य पर्यूषण महापर्व की शुरुआत भी होती है। महिलाएं भादों पंचमी के दिन परिवार की सुख, शांति और समृद्धि के लिए ऋषि पंचमी व्रत रखती हैं और कथा कहती हैं।

एक समय राजा सीताश्व धर्म का अर्थ जानने की इच्छा से ब्रह्मा जी के पास गए और उनके चरणों में शीश नवाकर बोले- हे आदिदेव! आप सभी धर्मों के प्रवर्तक और गुढ़ धर्मों के दर्शन करने वाले हैं। आपके श्री मुख से धर्म चर्चा श्रवण कर मन को आत्मिक शांति मिलती है। भगवान के चरण कमलों में प्रीति धन्य है। वैसे तो आपने मुझे नाना प्रकार के व्रतों के बारे में उपदेश दिये हैं।

अब मैं आपके मुखारविंद से उस श्रेष्ठ व्रत को सुनने का अभिलाषा हूं, जिसे करने से सभी पापों का नाश होता है। राजा के वचन को सुन कर ब्रह्माजी ने कहा- हे श्रेष्ठ, प्रिय प्रश्न अति उत्तम और धर्म में प्रीति बढ़ाने वाला है। मैं तुम्हें सभी पापों को नष्ट करने वाला सबसे अच्छे व्रत के बारे में बताता हूं। यह व्रत ऋषि पंचमी के नाम से जाना जाता है। इस व्रत को करने वाला जीव अपने सभी पापों से सहज पा लेता है।

आइए यहां जानते हैं ऋषि पंचमी व्रत की पौराणिक कथा

1. ऋषि पंचमी की व्रत कथा : इस कथा के अनुसार विदर्भ देश में उत्तक नामक एक सदाचारी ब्राह्मण रहता था। उनकी पत्नी बड़ी पतिव्रता थीं, जिनका नाम सुशीला था। उस ब्राह्मण के एक पुत्र और एक पुत्री दो संत थे। विवाह होने के योग्य पर उसने समान कुलशील वर के साथ कन्या का विवाह कर दिया। दैवयोग से कुछ दिन बाद वह विधवा हो गई।

दुखी ब्राह्मण दम्पति कन्या सहित गंगा तट पर कुटिया रहने लगे। एक दिन ब्राह्मण कन्या सो रही थी कि उसके शवों को खा लिया गया था। कन्या ने सारी बात माँ से कही। माँ ने पति से सब कहा पूछा- प्राणनाथ! मेरी संतान कन्या की यह गति होने का क्या कारण है?

उत्तंक ने समाधि लेकर इस घटना का पता लगाया- पूर्व जन्म में भी यह कन्या ब्राह्मणी थी। बैटरी रजस्वला पर्वत ही पॉश्चर प्वाइंट नीचे दिए गए थे। इस जन्म में भी लोगों ने नहीं देखा-देखी ऋषि पंचमी का व्रत। इसलिए इसके शरीर में कीड़े पड़े हैं।

धर्मशास्त्रों का मत है कि रजस्वला स्त्री के पहले दिन चांडालिनी, दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी और तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र होता है। वह चौथा दिन स्नान करके शुद्ध होता है। यदि यह शुद्ध मन से अब भी ऋषि पंचमी का व्रत करें तो इसके सारे दुख दूर हो जाएंगे और अगले जन्म में अटल सौभाग्य प्राप्त होगा। पिता की आज्ञा से पुत्री ने दी विधि – ऋषि पंचमी का व्रत एवं पूजन। व्रत के प्रभाव से वह सारे दुखों से मुक्त हो गयी। अगले जन्म में उन्हें अटल नक्षत्र सहित अक्षय सुखों का भोग मिला।

2. ऋषि पंचमी की व्रतकथा : सतयुग में विदर्भ नगरी में श्येनजित नामक राजा हुए थे। वह ऋषियों के समान थे। नवीन के राज में एक क्रांतिकारी सुमित्र थे। उनकी पत्नी जयश्री अत्यंत पतिव्रता थीं। एक समय वर्षा ऋतु में जब उसकी पत्नी खेती की खेती में लगी थी, तो वह रजस्वला हो गयी। रजस्वला का पता चला फिर भी वह घर के सामान में लगी रही। कुछ समय बाद वह दोनों स्त्री-पुरुष अपनी-आपकी आयु भोगकर की मृत्यु को प्राप्त हुए।

जयश्री तो कुतिया बनीं और सुमित्रा को रजस्वला महिला के संपर्क में आने के कारण बैल की योनि मिली, क्योंकि ऋतु दोष के अतिरिक्त इन दोनों का कोई अपराध नहीं था। इसी कारण इन दोनों को अपने पूर्व जन्म का पूरा विवरण याद आ रहा है। वे दोनों कुटिया और बैल के रूप में एक ही नगर में अपने बेटे सुचित्र के यहाँ रहते हैं। धर्मात्मा सुचित्र अपने अनुरोध का पूर्ण सत्कार करता था। अपने पिता के श्राद्ध के दिन वह अपने घर ब्राह्मणों को भोजन कराने के लिए नाना प्रकार के भोजन बनवाते हैं।

जब उसकी महिला किसी काम के लिए रसोई से बाहर निकली तो एक सर्प ने रसोई की टोकरी में विष वामन कर दिया। कुटिया के रूप में सुचित्रा की मां कुछ दूर से सब देख रही थीं। पुत्र की बहू के आने पर उसने पुत्र को ब्रह्म हत्या के पाप से बचने के लिए उस स्थान में मुंह डाल दिया।
सुचित्रा की पत्नी चंद्रावती ने कुटिया का यह काम नहीं देखा और उन्होंने चूल्हे में से जलती लकड़ी निकाल कर कुटिया को मारी। यहाँ-वहाँ-इधर-उधर घूमती रही। इलिनोइस में जो वह लोन आदि बचता रहता था, सब सुचित्र की बहू उस कुटिया को डाल दिया था, लेकिन क्रोध के कारण वह भी बाहर फिकवा दी। सभी का सामान फिक्सवा कर पॉश्चर साफ करके खाना बनाना कर ब्राह्मणों को ऑफर करना।

रात के समय भूख से व्याकुल कुतिया गेंद के रूप में रह रही अपने पूर्व पति के पास ज्ञान बोली, हे स्वामी! आज तो मैं भूख से मेरी जा रही हूं। वैसे ही तो मेरा पुत्र मुझे प्रतिदिन भोजन देता था, परन्तु आज मुझे कुछ नहीं मिला। सांप के विष वाले खेड के पोर को कई ब्रह्म हत्या के भय से छूकर उनका कोई उपयुक्त उद्देश्य नहीं दिया गया था। इसी कारण उसकी बहू ने मुझे मारा और किसान को कुछ भी नहीं दिया।

तब वह बैल बोला, हे भद्रे! तेरे पापों के कारण तो मैं भी इस योनि में आ गया हूं और आज लोडा धोते-धोते मेरी कमर टूट गई है। आज मैं भी खेत में मॉर्शल हल में जुटा रहा हूं। मेरे बेटे ने मुझे आज भी खाना नहीं दिया और मुझे भी मारा। मुझे इस प्रकार कष्ट उठाना पड़ा। उसने इस श्राद्ध को निष्फल कर दिया।

अपने माता-पिता की इन बातों को एक चित्र में सुनते हुए, उन्होंने उसी समय दोनों को भोजन कक्ष में भरपेट भोजन कराया और फिर उनके दुख से दुखी होकर वन की ओर चले गए। वन में पर्यटक ऋषियों से पूछते हैं कि मेरे माता-पिता किन कर्मों के कारण इन नीच योनियों को प्राप्त करते हैं और अब किस प्रकार से ग्रहकों को प्राप्त किया जा सकता है। तब सर्वतमा ऋषि बोले तुम मुक्ति के लिए पत्नीसहित ऋषि पंचमी का व्रत करो और फल अपने माता-पिता को दो।

भाद्रपद माह की शुक्ल पंचमी को मुख शुद्ध करके मध्याह्न में नदी के पवित्र जल में स्नान करना और नई रेशमी मिट्टी के घर अरुधन्ति सहित सप्तऋषियों का पूजन करना। इतना दुखी सुचित्र अपने घर लौट आया और अपनी पत्नीसहित विधि-विधान से पूजन व्रत किया। उसके पुण्य से माता-पिता दोनों पशु योनियों से छूट गये। अत: इस कथा की यही महिमा है।

सप्त ऋषि कौन हैं:

सप्त ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षय:।

कन्द्रशिश्च, श्रुतर्षिश्च, राजर्षिश्च कर्मवश:।।

अर्थात्: 1. ब्रह्मर्षि, 2. देवर्षि, 3. महर्षि, 4. परमर्षि, 5. काण्डर्षि, 6. श्रुतर्षि और 7. राजर्षि- ये 7 प्रकार के ऋषि होते हैं जिन्हें सप्तर्षि कहते हैं।
ऋषि पंचमी पर सप्तऋषि पूजन मंत्र –

‘कश्यपोत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोथ गौतमः।

जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषयः स्मृताः॥

धन्तु पापं सर्व घृण्न्तवर्ध्यं नमो नमः॥

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